पाकिस्तान की मुश्किलें
पाकिस्तान इन दिनों चर्चा में है। वहां की अर्थव्यवस्था गंभीर आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रही है। रोजमर्रा की वस्तुएं आम आदमी की पहुंच से दूर होती जा रही है।
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महंगाई की सबसे अधिक मार खाद्य पदाथरे पर पड़ रही है। आटे की कीमत आसमान छू रही है। सूचना है कि कि देश के सिंध, बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनवा में सरकार की ओर से बांटा जा रहा रियायती आटा लेने के लिए भगदड़ मच गई। इस भगदड़ से लोगों के मरने की भी खबर है। कराची जैसे शहरों में आटा का भाव 140 से 260 पाकिस्तानी रुपये प्रति किलो बेचा जा रहा है। 20 हजार में एक गैस सिलेंडर मिल रहा है। दिसम्बर 2021 में मुद्रास्फीति की दर 12.3 फीसद थी जो दिसम्बर 2022 में बढ़कर 24.5 फीसद हो गई। दिसम्बर 2022 के आंकड़े बता रहे हैं कि पाकिस्तान के पास अब विदेशी मुद्रा भंडार सिर्फ 11.4 बिलियन डॉलर बच गया है।
पिछले दिनों पड़ोसी देश श्रीलंका की हालत भी ऐसी ही हो गई थी। अर्थनीति और राजनीति के जानकारों को आशंका है कि पाकिस्तान भी श्रीलंका की राह पर बढ़ रहा है। भारत की गुप्तचर संस्था रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के अधिकारियों और लेखकों ने करीब एक दशक पहले पाकिस्तान को फेल्ड स्टेट कहना शुरू कर दिया था। हालांकि फिलहाल पाकिस्तान को फेल्ड स्टेट की परिभाषा और अवधारणा की श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता है, लेकिन इतना जरूर है कि देश की सरकार और प्रशासन के सामने अर्थव्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था और आतंकवाद जैसे खतरे बड़ी चुनौती है। सच तो यह है कि पाकिस्तान की सेना और राजनीतिक दलों के नेता सिर्फ भारत विरोध के नाम पर अपनी सियासत चमकाते हैं।
पाकिस्तान अगर भारत के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने की दिशा में अपना कदम आगे बढ़ता है तो वहां की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट सकती है और राजनीतिक स्थिरता भी कायम हो सकती है। लेकिन इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व को सेना की तानाशाही के विरुद्ध एक लंबा आंदोलन चलाना होगा। राजनीतिक दलों को जनता का विश्वास अर्जित करने के लिए यह साबित करना होगा कि पाकिस्तान में लोकतंत्र की सफलता और राजनीतिक स्थायित्व की मुख्य शक्ति सेना नहीं बल्कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं। सवाल है कि क्या वहां के राजनीतिक दल इसके लिए तैयार होंगे।
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