तेज होता विवाद
कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल पर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती के कार्यक्रम में, प्रधानमंत्री की मौजूदगी में हुई घटना गैरजरूरी तो थी, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं।
तेज होता विवाद |
इस आयोजन में जाहिर है कि कुछ सौ चुनिंदा लोगों को ही आमंत्रित किया गया होगा। फिर भी, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को बोलने के लिए आमंत्रित किए जाने पर श्रोताओं के एक हिस्से द्वारा नारे लगाकर एक तरह से हूट किया गया और बनर्जी ने भी नाराजगी जताते हुए आयोजन में बोलने से इनकार कर दिया। यह बस पूर्व-नियोजित भले ही नहीं हो, उस कटुतापूर्ण तरीके से तीखे राजनीतिक टकराव को ही दिखाता है, जो राज्य विधानसभा के चुनाव तक और ज्यादा तेज ही होने जा रहा है।
टकराव के मौजूदा चक्र की शुरुआत अब से कई महीने पहले तो हो ही चुकी थी, जब अपने चुनाव-पूर्व चुनाव अभियान के महत्त्वपूर्ण हिस्से के तौर पर भाजपा ने तृणमूल के आला नेताओं से बदलवाने का सिलसिला शुरू किया था। नेताजी के स्मरण के आयोजन में यह टकराव छलक पड़ा तो क्या आश्चर्य? जाहिर है कि दोनों में कोई भी पक्ष, नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुड़े आयोजन को इस टकराव में खींचने का लोभ छोड़ नहीं सकता था। एक ओर से जयकारे से राजनीतिक नारे में तब्दील किए जा चुके ‘जय श्रीराम’ के नारे का तीर चलाया गया और दूसरी ओर से इसका प्रदर्शन किया गया कि ममता बनर्जी किसी से भी दबने वाली नेता नहीं हैं।
यहां इतना जोड़ना भी अप्रासांगिक नहीं होगा कि इस टकराव के दोनों ही पक्ष वैसे भी किसी भी तरह के शिष्टाचार तथा नैतिकता से अपने राजनीतिक हितों के रास्ते में आने न देने के लिए कुख्यात हैं, लेकिन बंगाल के संदर्भ में एक और भी चीज है, जो इस टकराव को तेजी दे रही है। इसका संबंध बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य में वामपंथ-कांग्रेस गठबंधन के रूप में तीसरी ताकत की मजबूत मौजूदगी से है, जो न सिर्फ नतीजों के लिहाज इसे एक खुला चुनाव बना रही है बल्कि रोजगार जैसे प्रश्नों को उठाती है। यह गठबंधन एक ओर भाजपा तथा दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस की, संप्रदाय-केंद्रित ध्रुवीकरण की कोशिशों में खलल डालते हैं। ऐसे में ये दोनों ताकतें, खासतौर पर मीडिया पर अपने प्रभाव के जरिए, चुनाव को एक द्विध्रुवीय मुकाबले के रूप में दिखाने तथा अंतत: उसी आधार पर ध्रुवीकरण करने की प्रयासों में लगी हुई हैं। उनके बीच ही घात-प्रतिघात के प्रसंग, इसमें भी मददगार लग सकते हैं।
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