कहे का मर्म
पिछले दिनों बीफ या गोमांस खाने और न खाने को लेकर उठे गंभीर विवादों के संदर्भ में उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू का विचार राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से काफी महत्त्व रखता है, और इसीलिए इसके अर्थ को समझने की जरूरत भी है.
कहे का मर्म |
उनका विश्वास है कि किसी भी व्यक्ति की यदि गोमांस खाने की इच्छा है तो वह बेशक खा सकता है. लेकिन किसी स्कूल, कॉलेज या विविद्यालय में बीफ फेस्टिवल आयोजित करना बेतुका है. ऐसे आयोजन से दूसरों के लिए समस्याएं पैदा हो सकती हैं. उप राष्ट्रपति के उपरोक्त विचार से असहमत होने का कोई कारण नहीं हो सकता.
यह तथ्य है कि भारतीय संविधान में नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारों का प्रावधान है. लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण किया जाए. इसीलिए, संविधान प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकार स्वछंद और असीमित नहीं हैं. यदि कोई नागरिक किसी दूसरे के मूल अधिकारों का अतिक्रमण करने की कोशिश करता है, तो राज्य उसकी रक्षा के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नियमन कर सकता है.
फर्ज कीजिए कि कोई शाकाहारी है और उसी का पड़ोसी मांसाहारी हो तो इसमें अचंभा और हैरानी जैसी कोई बात नहीं है. हैरानी और परेशानी तब पैदा होगी जब उसी इलाके में उसका पड़ोसी बीफ फेस्टिवल आयोजित कर दे. इससे शाकाहारी व्यक्ति की भावनाएं आहत हो सकती हैं.
इसे संवैधानिक दृष्टि से भी उचित नहीं कहा जा सकता. जब हम कहते हैं कि भारत विविधताओं से भरा देश है, तो इसका यह भी मतलब होता है कि विभिन्न राज्यों में खान-पान की संस्कृति भी अलग-अलग है. इसीलिए कुछ राज्यों में बीफ खाने या बेचने पर कोई प्रतिबंध नहीं है, जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, तमिलनाडु, हरियाणा और महाराष्ट्र में यह प्रतिबंधित है.
उप राष्ट्रपति न तो खान-पान की संस्कृति की आजादी का नियमन करने के पक्षधर हैं, और न सहमति के अधिकार का नियमन करने का समर्थन करते हैं. वह अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश की संप्रभुता और अखंडता से खिलवाड़ करने वाली प्रवृत्तियों के विरोधी हैं. उनकी नजर में अफजल गुरु की तारीफ करने वाले, जेएनयू में देशविरोधी नारे लगाने वाले और बीफ फेस्टिवल आयोजित करने वाले देशद्रोही हैं.
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