अब कोई ‘जहांगीर’ नहीं!
पड़ोसी देश पाकिस्तान से अस्मां जहांगीर की शक्ल में एक बड़ा नाम हमारे बीच से रुखसत हो गया.
अब कोई ‘जहांगीर’ नहीं! |
बड़ा इस लिहाज से नहीं कि वह कोई धन्ना सेठ थीं, सैकड़ों एकड़ जमीन के मालिक भुट्टो खानदान की कोई वारिस थीं या वह नवाज शरीफ जैसे किसी बड़े सरमायेदार घराने की नुमाइंदगी करती थीं. इन सबका जिक्र यहां इसलिए जरूरी है कि पाकिस्तान जैसे सख्तजान मुल्क में सल्तनतें बनती और चलती हैं-सेना के बूते, वक्त- जरूरत उससे नूराकुश्ती के भी बीच..और ये घराने उस फन के उस्ताद हैं.
अस्मां जहांगीर होने का मतलब वह औरत होना है, जिसने पाकिस्तान को हद में रहने की तमीज सिखाई, बताया कि आदमी बने रहने के लिए आदमी बने रहने की जरूरी शर्तें सुनिश्चित किए बगैर पाकिस्तानी सेना को बैरक से हमेशा बाहर रहने और आखेट करने से कोई ताकत कतई नहीं रोक सकती. यह तभी रुकेगी जब बंदूकों और तोप-तमंचों के बरक्स एक ऐसी दुनिया बसाई जाए, जहां आदमी सिर्फ और सिर्फ आदमी बन कर रह सके और जहां उसके जीवित रहने के हर हक्को-हुकूक की गारंटी मिले. पाकिस्तान में मानवाधिकार की बात करना कोई हंसी-ठट्ठा नहीं है.
कल्पना कीजिए कि जिस मुल्क में जुल्फिकार अली भुट्टो के बाद लूले-लंगड़े लोकतंत्र के दीदार भी बड़ी मुश्किल से हुए हों, आदमी की जान हर पल किसी दहशतगर्द या फौज के सीधे निशाने पर हो, औरतें सबसे ज्यादा दुसह और जोखिम भरा, गैरबराबरी भरा जीवन जीती हों, वहां कोई औरत मानवाधिकार का पाठ पढ़ाए-यह काम क्या आसान है? लेकिन अस्मां ने यह कर दिखाया.
जिन्ना के मुल्क की दो औरतों को उपमहाद्वीप हमेशा याद रखेगा-अस्मां और मुख्तारन माई. दोनों ने पाकिस्तानी इतिहास के बड़े ही खूंरेजी दौर में न सिर्फ सवाल पूछे बल्कि जीने की गारंटी भी मांगी. इसकी मुहिम भी छेड़ी और काफी हद तक वे कामयाब भी रहीं. अस्मां पढ़ी-लिखी थीं, पेशे से वकील. मुख्तारन बिल्कुल घरेलू. लेकिन दोनों का चरित्र और लड़ने का जुनून लगभग एक जैसा. मुख्तारन अभी जीवित हैं. अस्मां चली गई. लेकिन जो लड़ाई उन्होंने छेड़ी और मानवाधिकार की जो आग उन्होंने उस फौजी मुल्क में बोई, उस साहस को सलाम.
Tweet |