सर्वोच्च संकट
सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों ने सार्वजनिक तौर पर प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ मनमाना व्यवहार करने या न्यायिक प्रक्रियाओं का अनुपालन न करने के आरोप लगाकर न केवल शीर्ष अदालत की सर्वमान्य प्रतिष्ठा को झटका दिया है बल्कि आम लोगों के उसके प्रति भरोसे को भी गहरा आघात पहुंचाया है.
सर्वोच्च संकट |
देश की शीर्ष अदालत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश चेलमेर, न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायाधीश मदन लोकुर और न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने एक प्रेस वार्ता में प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की प्रशासनिक कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े करके न्यायपालिका की विसनीयता की बुनियाद को कमजोर किया है.
उन चारों न्यायाधीशों ने प्रधान न्यायाधीश को संबोधित सात पृष्ठों का एक पत्र भी जारी किया है, जिसमें महत्त्वपूर्ण मामलों में सामूहिक निर्णय और कार्य के बंटवारे को लेकर भी नाराजगी जताई गई है. उन जजों का आरोप है कि देश के कुछ महत्त्वपूर्ण मामले चुनिंदा बेंचों और जजों को ही दिये जा रहे हैं. उन जजों के आरोपों के बरक्स यह सवाल बहुत अहम है कि ये न्यायाधीश प्रधान न्यायाधीश की समझदारी पर सवाल उठा रहे हैं तो उन्हें यह भी बताना चाहिए कि वे आखिर किस इरोदे से ऐसा कर रहे हैं?
दूसरा महत्त्वपूर्ण सवाल यह भी उठता है कि यदि प्रधान न्यायाधीश अहम सुनवाई के लिए किसी चुनिंदा बेंच का गठन करते हैं तो इसके पीछे उनकी मंशा क्या है? क्या आरोप लगाने वाले जजों के पास इसका कोई पुख्ता सबूत है. अगर नहीं है तो उनसे भी यह सवाल पूछा जा सकता है कि इस केस के पीछे आपकी दिलचस्पी क्या थी? केवल हवा में आरोप उछालकर वे लोकतंत्र की हिफाजत नहीं कर सकते, जैसा कि उन्होंने दावा किया है कि देश का लोकतंत्र खतरे में है और उसे बचाने के लिए उन्हें मीडिया के सामने आना पड़ा है.
पहली नजर में तो यही प्रतीत होता है कि यह विवाद वैचारिक संघर्ष का हो सकता है या फिर अहं के टकराव का; क्योंकि आरोप लगाने वाले न्यायाधीश वरिष्ठ हैं और उन्हें पता है कि प्रधान न्यायाधीश के विशेषाधिकार पर सवाल खड़े नहीं किए जा सकते हैं. लेकिन जो कुछ भी हुआ, वह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है और इससे न्यायपालिका की निष्ठा पर सवाल खड़े हो रहे हैं. इसलिए जितना जल्द हो सके, इस विवाद के सुलझ जाने में ही देश की भलाई है.
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