न्याय के लिए चिंता
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने समय पर न्याय मिलने तथा स्थानीय भाषा पर जोर देने की जो बात कही है, वह हर दृष्टि से स्वागतयोग्य है.
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद (फाइल फोटो) |
अगर किसी को समय पर न्याय मिले ही नहीं तो वह न्याय कहां से हुआ! न्याय मिलने में देरी, एक तरह का अन्याय है. न्याय प्रक्रिया में विलंब गरीब के लिए असहनीय बोझ है. गरीब आदमी न्यायालय आए और उसे केवल तारीख मिले और यह क्रम लंबा चले तो उसके लिए यह मरने के समान हो जाता है. उसके पास इतने साधन नहीं होते कि खर्च करके न्यायालय आता रहे, वकील को फीस दे, अपनी हाजिरी लगाता रहे. संसाधन संपन्न लोग न्याय प्रक्रिया की इस खांच का अपने हित में दुरुपयोग करते हैं. इसलिए उन्होंने कहा कि तारीख पर तारीख देने की प्रवृत्ति से बचना चाहिए.
वास्तव में किसी मामले को तभी स्थगित किया जाए या अगली तारीख के लिए टाला जाए जब कोई अन्य विकल्प मौजूद नहीं हो. राष्ट्रपति के कथन का मूल यही था कि सभी को समय से न्याय मिले, न्याय व्यवस्था कम खर्चीली हो, सामान्य नागरिक की भाषा में निर्णय देने की व्यवस्था हो और विशेषकर महिलाओं एवं कमजोर वर्ग के लोगों को न्याय मिले.
आम लोगों की भाषा में न्याय की लड़ाई लंबे समय से चल रही है. न्यायालयों की पूरी प्रक्रिया अंग्रेजी में लिखी जाती है. सर्वोच्च न्यायालय ने हिन्दी में बहस एवं प्रक्रिया लेखन की मांग संबंधी एक जनहित याचिका खारिज कर दी. केन्द्र सरकार ने भी अपने जवाब में हिन्दी के पक्ष में वकालत नहीं की.
राष्ट्रपति ने यह कहकर न्यायालयों की आंखें खोली हैं कि आज अधिकांश मामलों में यह स्थिति है कि जो गरीब मुवक्किल पैसा खर्च करता है और जिसके लिए पूरी प्रक्रिया सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, वही इस प्रक्रिया के बारे में अनभिज्ञ होता है. यदि स्थानीय भाषा में बहस करने का चलन जोर पकड़े तो सामान्य नागरिक अपने मामले की प्रगति को बेहतर ढंग से समझ पाएगा.
आखिर फैसलों और आदेशों की प्रतिलिपियों का स्थानीय भाषा में अनुवाद कराने में क्या समस्या है? राष्ट्रपति ने बताया कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने अपने निर्णयों और आदेशों को हिंदी में उपलब्ध कराने का प्रावधान किया है और कुछ अन्य न्यायालय भी इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. जाहिर है, इसे पूरे देश में अपनाया जाए. हमें हमारी भाषा में न्याय मिलना ही चाहिए.
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