धुएं से मुक्ति की चाह

Last Updated 14 Nov 2017 02:52:58 AM IST

गरीबों के दिन बहुरने लगे हैं. केंद्र सरकार की गरीबों की रसोई तक एलपीजी सिलेंडर पहुंचाने की ‘उज्जवला योजना’ ने कई मामलों में ग्रामीण क्षेत्रों की तस्वीर बदल कर रख दी है.


धुएं से मुक्ति की चाह

अब गांवों की रसोई में लकड़ी, कोयला, केरोसिन के बदले एलपीजी और अन्य आधुनिक चूल्हा आ चुका है.

रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण भारत में 67-80 फीसद परिवार आज भी खाना पकाने के लिए लकड़ियों और उपलों का उपयोग करते हैं. इससे जहां महिलाओं के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, वहीं पर्यावरण में कार्बन का उत्सर्जन बुरी तरह से बढ़ जाता है. महिलाएं खासतौर पर इससे प्रभावित होती हैं.

चूंकि उदारीकरण के बाद से ही देश की तस्वीर सकारात्मक रुख लेने लगी थी और अब गांव के लोगों में भी बेहतर जीवनशैली से गुजर-बसर का विचार गाढ़ा होने लगा है. यही वजह है कि शहरों के प्रतिवर्ष आठ सिलेंडर की औसत मांग के मुकाबले गांवों में भी यह आंकड़ा औसतन प्रति वर्ष पांच तक पहुंच चुका है. यह तथ्य इस मायने में खुशनुमा अहसास दिलाता है कि न केवल गांवों में बेहतर ढंग से खुद को स्थापित करने और शहर के मुकाबले खड़े होने का विचार दृढ़ हो रहा है बल्कि पर्यावरण की दृष्टि से भी यह अहम बदलाव है.

अब गांवों के लोग भी स्वच्छतापूर्वक और अधिकार के साथ रहने के बारे में संजीदगी से सोचने लगे हैं, साथ ही निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी, संसाधनों पर नियंत्रण, जीवन में आगे बढ़ने के अवसर, बेहतर जीवनशैली अपनाने या उसका चयन करने की स्वच्छंदता, आर्थिक आजादी जैसी बुनियादी जरूरतें भी उनके आचार-विचार के केंद्र में हैं. इस लिहाज से देखा जाए तो केंद्र की अगर एक योजना इतना बड़ा बदलाव ला सकती है तो बाकी योजनाओं को जरूरतमंदों तक पहुंचाने में ज्यादा परेशानी सरकार को नहीं होनी चाहिए.

चाहे वह शहरों की तर्ज पर कॉलेज, अस्पताल, सिनेमाहाल और बाकी जरूरत के संस्थान हों. चाहिए तो बस मजबूत और ईमानदार इच्छाशक्ति की. सबसे अहम बात यह है कि अधिकार और सशक्तिकरण के संदर्भ में चीजें बदली हैं और कई मायनों में बेहतर भी हुई हैं. सच कहा जाए तो असल मायने में बदलाव भी यही है.



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