टीपू पर आमने-सामने
ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्त्व की इमारतों पर रार थमी भी नहीं कि कांग्रेस और भाजपा मैसूर के शासक रहे टीपू सुल्तान पर आमने-सामने आ गए हैं.
टीपू सुल्तान (फाइल फोटो) |
टीपू सुल्तान की जन्मशती मनाने के कर्नाटक सरकार के फैसले के मुद्दे पर भाजपा और कुछेक संगठन बिफरे हुए हैं. आयोजन की तारीख 10 नवम्बर है, मगर कर्नाटक का माहौल अभी से गरम है. केंद्र सरकार में मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने टीपू सुल्तान की जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में शामिल न होने के ऐलान के बाद से सूबे की सियासत में जयंती मनाने और न मनाने को लेकर रणनीतिक मोर्चाबंदी तेज हो गई है.
कांग्रेस और भाजपा दोनों अपने-अपने तरीके से जयंती के समर्थन और विरोध कर रही हैं. एक तरफ जहां कांग्रेस को यह लगता है कि मुस्लिम वोट उसके इस कदम से एकमुश्त मिलेंगे तो भाजपा भी इस बात से पूरी तरह मुत्तमइन है कि हिन्दुओं और ईसाइयों के वोट उनकी झोली में आएंगे. कांग्रेस की सोच के पीछे मुस्लिम वोटरों का करीब 13 फीसद मत है. साथ ही 224 विधान सभा सीटों में से करीब 60 सीटों पर मुस्लिम मत निर्णायक भूमिका में हैं.
हालांकि भाजपा इस उम्मीद में जयंती के खिलाफ में है कि उसे पता है कि उसके इस फैसले से बहुसंख्यक हिन्दू मतदाताओं के साथ ही ईसाई समुदाय का भी समर्थन मिलेगा. इन सब तथ्यों से अलग हटकर मंथन करें तो अहम सवाल तो यही कि क्या बीते वक्त के भारतीय शासकों के नाम और काम पर राजनीतिक रोटियां सेंकनी सही है? कई इतिहासविदों का सीधे तौर पर कहना है कि चूंकि टीपू सुल्तान ने सैकड़ों हिन्दुओं और ईसाईयों का कत्लेआम किया और कइयों का धर्मातरण किया, इस लिहाज से उनका महिमामंडन करना या उनकी जयंती लाखों रुपये खर्चकर मनाना बिल्कुल गलत है.
परंतु इस हकीकत को कौन समझे? सत्ता का अपना चरित्र होता है और वह हर चीज अपने सियासी नफा-नुकसान के तराजू पर तौल कर करती है. उसे इस बात से तनिक भी तकलीफ नहीं होती है कि उसके निर्णय का देश की छवि या आने वाली पीढ़ी पर क्या असर पड़ेगा? असल मसला भी यही है. और यह एक दिन में पटरी पर आने वाली चीज भी नहीं है. इसके लिए उदार मन और विशाल हृदय को लेकर आगे बढ़ना होगा.
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