सुस्त विकास दर
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर पहले के अनुमान के मुकाबले कम रह सकती है.
सुस्त विकास दर |
2017-18 में विकास दर के 7.4 प्रतिशत रहने का अनुमान है. पहले का अनुमान 8 प्रतिशत के करीब था. इन दिनों ऐसे और इतने आर्थिक आंकड़े आ रहे हैं कि सरकार और विपक्ष दोनों के काम आ सकते हैं.
यह आंकड़ा विपक्ष को नये हथियार दे सकता है. पर एक और आंकड़ा अभी आया है, जिसके मुताबिक अप्रैल-सितम्बर की अवधि में प्रत्यक्ष कर संग्रह में करीब 16 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. गत वर्ष की इसी अवधि के मुकाबले.
पर दिन बीतते-बीतते यह सूचना आयी कि प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने अर्थव्यवस्था में सुस्ती की बात मानते हुए 10 क्षेत्रों में प्रयासों की जरूरत को रेखांकित किया है. इनमें से 4 क्षेत्र हैं-विकास, रोजगार, गैर औपचारिक क्षेत्र और खेती. यानी सरकार को अहसास है कि सब कुछ एकदम ठीक नहीं चल रहा है. कुछ बुनियादी बेहतरी की दरकार है. रोजगार और खेती ये दो क्षेत्र तो ऐसे हैं, जहां त्वरित प्रयासों की जरूरत है.
भारत की करीब 50 प्रतिशत आबादी 25 साल से नीचे की है. हर माह करीब 10 लाख नौजवान रोजगार बाजार में दाखिल होते हैं. इनके रोजगार की उचित व्यवस्था बहुत जरूरी है. रोजगार सिर्फ आर्थिक नहीं, राजनीतिक और सामाजिक मसला भी है. खेती पर विमर्श तो बहुत हो गया. अब कुछ ठोस किये जाने की जरूरत है. संसद का एक विशेष अधिवेशन इस संबंध में बुला लेना चाहिए. इसलिए कि बिना राजनीतिक सहमति के बने कुछ भी महत्त्वपूर्ण न हो पायेगा. रोजगार के मसले पर एक ठोस कार्ययोजना सरकार को सबके सामने रखनी चाहिए.
मोदी को भूलना नहीं चाहिए कि अपनी चुनाव रैलियों में वह मनमोहन सिंह से हर साल 1 करोड़ रोजगार सृजन के वादे पर सवाल पूछते थे. चुनाव देर सबेर होने ही हैं और अब सवाल पूछने की बारी दूसरों की है. लोकतंत्र की यही खूबी है कि आप सिर्फ सवाल उछाल के नहीं बच सकते. उन सवालों के जवाब आपको तब देने ही होते हैं, जब आप खुद सरकार में हों. मनमोहन सिंह की सरकार हर साल 1 करोड़ नौकरी न दे पायी और न मोदी सरकार दे पायी.
यानी अर्थव्यवस्था में कुछ बुनियादी तौर पर ऐसा बदल गया है कि ज्यादा रोजगार के अवसर पैदा नहीं पा रहे हैं. सरकार और विपक्ष को इस मामले में एक दूसरे पर प्रहार के अलावा गंभीर चिंतन के लिए आपस में मिल बैठना चाहिए.
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