साझी विरासत का कारवां

Last Updated 19 Aug 2017 06:25:57 AM IST

शरद यादव के नेतृत्व में आयोजित ‘साझी विरासत बचाओ’ सम्मेलन को एक मायने में कुछ हद तक सफल कहा जा सकता है कि इसमें ज्यादातर विपक्षी दलों के नेता शामिल हुए.


साझी विरासत का कारवां

किंतु इसके अलावा यदि सम्मेलन की परिणति या भविष्य के लिए मिलने वाले संदेशों की दृष्टि से देखें तो केवल निराशा ही हाथ लगेगी. सम्मेलन साझी विरासत बचाओ जैसे व्यापक फलक की ध्वनि पैदा करने वाले बैनर से बुलाया गया था और वहां जगह-जगह भारतीय संविधान की प्रस्तावना लगाई गई थी.

इसके माध्यम से शरद यादव यह संदेश देना चाह रहे थे कि उनका उद्देश्य सरकार के विरु द्ध सामान्य राजनीतिक जमावड़ा नहीं है, बल्कि वे संविधान की प्रस्तावना में वर्णित लक्ष्यों की जो साझी विरासत है, उसे साकार करने पर विचार करने के लिए इकट्ठा हो रहे हैं.

पर हुआ ठीक इसके विपरीत. वहां उपस्थित ज्यादातर नेताओं ने अपने भाषणों से इसे भाजपा और नरेन्द्र मोदी सरकार विरोधी सम्मेलन में परिणत कर दिया. स्वयं शरद यादव ने भी अपने समापन में कहा कि जो सरकार केंद्र में है, वह केवल 31 प्रतिशत मत से आई है, जबकि यहां जो लोग बैठे हैं, वे 69 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं.

इसके साथ उनका यह कहना कि जब जनता खड़ी होती है तो कोई हिटलर नहीं जीतता है, सम्मेलन के मुख्य स्वर को पूरी तरह राजनीतिक बना गया. वस्तुत: बिहार में नीतीश कुमार का भाजपा का दामन थामने के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक चुके शरद इस समय भाजपा के विरु द्ध एकजुट होने वाले नेताओं और दलों के चहेते बन गए हैं.

ज्यादातर नेता वहां इसी उद्देश्य से आए थे. इसलिए उनके भाषण का पूरी तरह राजनीति के रंग में सराबोर होना स्वाभाविक था. किंतु इस मायने में भी यह निराशाजनक माना जाएगा क्योंकि न वहां कोई प्रस्ताव पारित हुआ, न भविष्य के लिए कोई एजेंडा या कार्यक्रम दिया गया और न स्वयं शरद यादव ने ही कोई कार्यक्रम दिया.

वहां यह आवाज भी उठ रही थी कि जिस लोहिया जी ने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया उनके शिष्य होने का दावा करने वाले आज कांग्रेस के सहारे बदलाव का बड़ा कारवां खड़ा करने के पक्षधर बने हैं. वैसे भी कांग्रेस, माकपा या नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसी पार्टयिों को छोड़ दें तो अन्य दलों के बड़े नेताओं का उसमें शामिल न होना विपक्षी जुटाव के मायने में भी सम्मेलन को कमजोर बना रहा था.



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