उकसाया लालू ने ही
बिहार में जो हुआ, उसमें अप्रत्याशित कुछ भी नहीं है. एक सधी हुई पटकथा का यह ऐसा क्लाईमेक्स है, जिसमें कोई अबूझपन नहीं है.
उकसाया लालू ने ही |
न बिहार के लिए और न देश के स्तर पर. ऐसी कहानी का प्लाट कसा हुआ और दिलचस्प नहीं माना जाता, जिसके घुमावों और क्लाईमेक्स के बारे में पहले से पता हो. पर भाजपा से एक दशक की गलबहियां के बाद पटना में उसके दिग्गज नेताओं के आगे की परोसी थाली खींच लेने में एक स्तब्धकारी अचानकता थी.
नीतीश एक ही स्ट्रोक में ‘साम्प्रदायिकता विरोधी’ राजनीति की जमीन पर ‘लार्जर दैन लाइफ’ खड़े लालू प्रसाद से यह श्रेय छीन लिया था. वे लालू को अपने छीजते जनाधार को बनाये रखने और अनुभवहीन बच्चों को सयाना बनाने के लिए हर लिहाज से मुनासिब लगे. महागठबंधन बनने की यह पृष्ठभूमि थी, जिसका कोर मकसद ‘साम्प्रदायिक भाजपा’ को रोकना था. इसमें बिहार में लालू की छाया कांग्रेस भी थी.
चुनाव जीतने और साझा सरकार बनाने के बावजूद इसके चलने में सभी को संदेह कहानी की प्रस्तावना से ही था. देखिये कि यह संदेह ही जीत गया और महागठबंधन फांक-फांक हो गया. पुराने अनुभवों के आधार पर सब यही मानते रहे कि जिस लालू की दबंगई और कुनबापरस्ती के चलते नीतीश उनसे छिटके थे, उसमें बदला क्या है? खुद नीतीश कहते थे, ‘अब किसी का स्वभाव भी बदला जा सकता है.’
वाकई लालू नहीं बदले. उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और स्वार्थपूर्ति के आगे कानून को हाथ बांधे खड़े देखने की लत ज्यों की त्यों रही. इधर, नीतीश भाजपा के सहयोग काल में ही ‘सुशासन कुमार’ की अर्जित अपनी छवि से एक हद तक ही समझौतावादी हो सकते थे. बिखराव लाने वाला टकराव जब तक टल रहा था, तभी तक. तेजस्वी प्रकरण उसका निमित्त बन गया. लालू जैसा नेता इसको टाल सकता था और सरकार बचा सकता था, जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत उनको ही थी. नीतीश की तरफ से संभलने-संभालने का पर्याप्त वक्त भी दिया गया.
पर लालू अपनी आत्मघाती जिद पर अड़े रहे. इस दम पर कि वोटर उनके साथ हैं. लेकिन उनको यह याद रखना होगा कि इन्हीं वोटरों ने भ्रष्टाचार और अविकास का जिम्मेदार मान कर सत्ता से उन्हें बेदखल भी कर दिया था. अगर वे आगे बने रहना चाहते हैं तो उन्हें प्रासंगिकता बनानी होगी और यह बनेगी सुशासन से. नीतीश का भाजपा में जाना पहले से जितना तय हो, उनको इसके लिए उकसाया लालू ने ही.
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