ट्रेंड होना जरूरी

Last Updated 24 Jul 2017 05:57:09 AM IST

लोक सभा में मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का शिक्षकों के मामले पर विधेयक पेश करना निश्चित तौर पर सरकार की संजीदगी को बयां करता है.


चीटरों का ट्रेंड होना जरूरी (फाइल फोटो)

देश में सरकारी और निजी स्कूलों में करीब आठ लाख शिक्षक ऐसे हैं, जो शिक्षण की न्यूनतम योग्यता नहीं रखते हैं. यानी इन लोगों के पास बीएड की डिग्री नहीं है. सरकार ने ऐसे लाखों शिक्षकों को 2019 मार्च तक बीएड की डिग्री लेने का अल्टीमेटम दिया है. असफल रहने वालों को नौकरी से हटा देने की बात कही गई है.

सरकार का साफ तौर पर मानना है कि बिना बीएड की डिग्री के कोई शिक्षक कैसे बेहतर ढंग से बच्चों को पढ़ा सकता है. खुद ही कम ज्ञान रखने वाला शिक्षक कैसे बच्चों में शिक्षण या ज्ञान का जुनून पैदा कर सकता है? कई सर्वे भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि योग्य शिक्षक ही विद्यार्थियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे सकते हैं.

गैर सरकारी संस्था ‘प्रथम’ के ग्रामीण भारत के प्राइमरी स्कूलों के सव्रे में यह चौंकाने वाली बात सामने आई थी कि वहां अध्ययनरत बच्चों के स्तर में  कमी दर्ज की गई. और कमोबेश यह बदरंग तस्वीर हर राज्य की है. नीति शास्त्र के विशेषज्ञ चाणक्य के अनुसार, शिक्षक समाज की रीढ़ की हड्डी के समान हैं. लेकिन यह मसला सिर्फ शिक्षकों के बीएड डिग्री धारक नहीं होने से नहीं है.



सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में प्राइमरी और माध्यमिक स्कूलों में शिक्षकों के 10 लाख पद खाली हैं. स्वाभाविक है कि स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति के क्रम में इस बात की अनदेखी की जाती है कि शिक्षक शिक्षण कार्य की न्यूनतम अर्हता रखता है कि नहीं. और यही होता आया है. और जब नियमों को रौंदा जाएगा तो लाजिमी है शिक्षा का स्तर गोते लगाने लगेगा.

इस नाते केंद्र सरकार का बीएड डिग्री की अर्हता को अनिवार्य बनाने का फैसला स्वागतयोग्य कदम है. लेकिन इसके साथ ही सरकार को देशभर में कुकुरमुत्ते की तरह खुले बीएड और टीचर ट्रेनिंग संस्थानों पर नकेल कसनी होगी. साथ ही फर्जी डिग्री मुहैया कराने वाले संस्थानों को बंद कराना होगा. जब तक यह कदम नहीं उठाए जाएंगे, तब तक शिक्षा और शिक्षण के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव की बात सोचना बेईमानी होगी. क्योंकि विद्यार्थियों पर शिक्षकों के प्रभाव, स्कूल में उनके अनुभव, उनको सिखाने के तरीके और सामग्री का अच्छा-खासा प्रभाव पड़ता है.

 

संपादकीय


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