मोदी की नसीहत
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने सांसदों-विधायकों और पार्टी नेताओं से ट्रांसफर-पोस्टिंग की सिफारिशों के खेल में न पड़ने की हिदायत दी है.
मोदी की नसीहत |
वीआईपी कल्चर की तरह ही तबादलों-नियुक्तियों की यह संस्कृति हमारे तंत्र को भ्रष्ट करने में बड़ा योगदान करती रही है. खासकर अफसरशाही और पुलिस महकमे में राजनैतिक दखलअंदाजी में इसकी बड़ी भूमिका रही है, बल्कि यही भ्रष्टाचार का भी एक बड़ा स्रोत बताया जाता है. यह राजनैतिक भ्रष्टाचार की भी भूमि तैयार करती रही है.
आजादी के बाद से अफसरशाही और पुलिस सुधार के लिए कई अहम आयोगों ने इस पर रोक लगाने की सिफारिश की है. बड़े पदों के कार्यकाल निर्धारण और कई तरह की प्रक्रियाओं के अंकुश की सिफारिशों का मकसद भी इसी संस्कृति पर रोक लगाना रहा है. लेकिन सरकारें अमूमन ऐसी सिफारिशों पर विचार करने से बचती रही हैं.
दरअसल, ट्रांसफर-पोस्टिंग संस्कृति से सरकारों और राजनैतिक पार्टियों के निजी हित सधते रहे हैं. इसके खिलाफ राजनैतिक नेता बातें तो खूब करते हैं, लेकिन धरातल पर उसका कोई असर नहीं दिखता है. प्रधानमंत्री अगर वाकई गंभीर हैं तो ऐसे कदम उनके कथित तौर पर भ्रष्टाचार और काली कमाई मिटाने के संकल्प में काम आ सकते हैं और इसका स्वागत भी होना चाहिए.
हालांकि इसके लिए बड़ी राजनैतिक इच्छाशक्ति की दरकार है. कई मामलों में यह पाया गया है कि नेतृत्व के कहने के बावजूद उसका पालन नहीं होता. एक उदाहरण तो ताजा है. प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा कि हर सांसद को सदन में हाजिर रहना चाहिए और विधायी कर्तव्य में किसी तरह की चूक नहीं होनी चाहिए. उन्होंने हिदायत भी दी कि वे कभी भी किसी सांसद को बुलाकर पूछ सकते हैं.
मगर उसके बाद भी संसदों की हाजिरी पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा. राज्य सभा में इसी हफ्ते एक दिन तो अनेक प्रश्नों के जवाब इसलिए टालने पड़े कि न जवाब देने वाले मंत्री मौजूद थे, न प्रश्न करने वाले सांसद. सभापति को यह टिप्पणी करनी पड़ी कि संसदीय लोकतंत्र के प्रति ऐसी अगंभीरता अच्छा संकेत नहीं है, लोकतंत्र के लिए भी अच्छा नहीं है. इस वजह से सार्वजनिक रूप से कही बातों को जब तक अमल में लाने के लिए ठोस प्रबंध नहीं किए जाते, बड़ी से बड़ी बात का भी कोई खास अर्थ नहीं रह जाता है. यही इस मामले में भी हो रहा है.
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