गधा और सियासत

Last Updated 25 Feb 2017 05:35:32 AM IST

नरेन्द्र मोदी का यह धोबिया पाट है. यह मानने वाले बहुतेरे हैं. उनके लिए तो और भी ज्यादा जो विरोधी के बयानों पर उनके ही विरुद्ध एक भंवर पैदा करने में मोदी की महारत के कायल हैं.


गधा और सियासत

‘गधा प्रसंग’ उसी की एक बानगी है.

किसी प्रसंग में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने गुजरात सरकार के एक विज्ञापन में गधे को देखते हुए अमिताभ बच्चन से उसका प्रचार न करने की सलाह दी थी. अखिलेश का मतलब जो रहा हो पर मोदी ने इसे अपने पर हमला माना. गधे के शिक्षाप्रद कर्म-दर्शन की सांगोपांग व्याख्या करते हुए बताया कि इसके भांति ही वह अपने मालिक यानी जनता के आदेश पर उसके काम में अनथक जुते रहते हैं.

एक स्खलित होते संवाद का गरिमा रक्षण इससे बढ़िया कुछ नहीं हो सकता था. पर मोदी का मकसद इतना भर था? उनके सामने निशाने पर मुख्य रूप से अखिलेश हैं, जिनके चुनाव प्रचार की केंद्रीय थीम ही है-काम बोलता है. अब वही नेता काम और काम करने वाले का मजाक उड़ा रहा है. दूसरा, गदहे के गुणगान के जरिये कामकाजी सरकार के अखिलेश के दावे की हवा निकाली गई.

प्रकारांतर से यह तो बेजुबान दलित का भी मखौल उड़ाना हुआ, जो चुपचाप मजदूरी करता है. यह मान्यता अब भी है कि मजदूरी करने वाला दलित है, जो उत्तर प्रदेश में थोक वोट है. तीसरी आखिरी बात, यह कि एक दशकीय कांग्रेसी निष्क्रियता व नीति-पंगुता के बाद केंद्र स्तर पर काम की एक संस्कृति मोदी के चलते ही बनी है.

उनके पूर्ववर्त्ती कांग्रेसी प्रधानमंत्री जनता को मालिक या अपने को उसका सेवक नहीं मानते थे. लिहाजा, ऐसी पार्टी जो सपा से गठबंधन के सहारे सत्ता पाने का सपना देख रही है, उसको पूरा न होने दिया जाए. मोदी के अभिप्राय अपनी जगह ठीक हो सकते हैं लेकिन उनसे असहमति की गुंजाइश खत्म नहीं हो जाती. अखिलेश के चतुराई भरे उत्तर के कई निहितार्थ हैं.

अपने को काम के समर्पित सरकार का गुणगान करते हुए अवसर मिलने पर और भी बेहतर तरीके से जनकल्याण का दावा है. अभी तक के उनके कामकाज को देखते हुए उत्तर प्रदेश की जनता भरोसा करने के लिए तैयार है. यह सभाओं के मिजाज में दिखता है. अब तो यह नतीजे ही बताएंगे कि किसी कर्मठता के दावे पर भरोसा जताया. पर मोदी के गधा प्रसंग की व्याख्या पर कांग्रेस और मायावती का प्रतिक्रिया न देना चकित करता है.



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