लालच की राजनीति

Last Updated 24 Jan 2017 05:46:24 AM IST

भारत के राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्रों में मतदाताओं को अपनी ओर रिझाने के लिए जिस तरह के लोक-लुभावन वायदे किए जाने की राजनीतिक संस्कृति की नींव पड़ी है उससे बहुत सारे भ्रम टूट गए हैं.


लालच की राजनीति

अब यह लगने लगा है कि उत्तर से दक्षिण भारत तक की सियासी पार्टियां में आम जन की स्थायी समस्याओं का स्थायी हल ढूंढने की दिशा में न कोई इच्छाशक्ति शेष रह गई है और न ही उनके पास कोई विजन रह गया है. चावल, टीवी, मंगलसूत्र आदि उपहार बांटने की परंपरा दक्षिण भारत के राज्यों से शुरू हुई थी. अब उत्तर भारत के राज्यों में भी यह प्रचलन चल पड़ा है.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और पंजाब में भारतीय जनता पार्टी के घोषणा-पत्रों में क्रमश: गरीब महिलाओं को मुफ्त गेहूं, चावल, प्रेशर कुकर, नौजवानों को लैपटॉप और गरीबों को 25 रुपये किलो देसी घी, दस रुपये किलो चीनी देने के वायदे किए गए हैं. क्या इस तरह के उपहार बांटने की राजनीति समाज में गुणात्मक परिवर्तन ला सकती है! राजनीतिक दलों की यह भूमिका अंतत: जनता के स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनने के विचार को छीन लेने का कर्मकांड जैसा ही है.

यदि राजनीतिक दल सही मायने में व्यवस्थागत परिवर्तन लाना चाहते हैं तो उन्हें ऐसी व्यवस्था बनाने का संकल्प लेना चाहिए कि देश का हर मतदाता इतना समर्थवान बने कि वह स्वयं अपना लैपटॉप, टीवी और प्रेशर कुकर खरीद सके. घोषणा-पत्रों में ग्रामीण स्तर पर ऐसी योजनाएं बनाने का संकल्प होना चाहिए कि जिनसे अभावग्रस्त जनता का जीवन-स्तर उठ सके.



देश में गरीबी दूर करने और रोजगार सृजित करने के उपायों पर रोशनी डालनी चाहिए. उद्योग, खेती और मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को उन्नत बनाने की दिशा में विचार किया जाना चाहिए. ऐसी ईमानदार और पारदर्शी व्यवस्था बनाने का संकल्प होना चाहिए, जिसमें गरीबों को भी न्याय मिलने की गुंजाइश हो. घोषणा-पत्रों में ऐसी नीतियों का प्रगटीकरण होना चाहिए कि देश का ढांचागत विकास की रूपरेखा कैसी. हमारा संरचनात्मक विकास का मॉडल कैसा होगा. इनको हम टिकाऊ कैसे बनाएंगे.

पर्यावरण को संरक्षित रखने के लिए हम कौन सी योजनाएं लेकर आ रहे हैं. इन नीतियों को अमल में लाने के प्रति दृढ़ संकल्प भी होना आवश्यक है. आम जनता को यह क्षणिक खुशहाली तो दे सकती है, लेकिन गरीबी के दुष्चक्र से निकलने की विचार प्रक्रिया को पीछे धकेलती है. क्योंकि उपहार की राजनीति यथास्थितिवाद को बरकरार रखने का राजनीतिक खेल है.

संपादकीय


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