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सर्वोच्च न्यायालय की अग्रगामिता का प्रतिनिधित्व करने वाले इस फैसले का सम्मान और स्वागत किया जाना चाहिए, जिसमें ईसाई पर्सनल लॉ के जरिये मिले तलाक को अवैध ठहराया गया है.
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भारतीय संविधान प्रगतिशील सामाजिक मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है, लिहाजा गिरजाघरों के अदालतों से मंजूर तलाक हो या फिर मुसलमानों के पर्सनल लॉ के तहत मौखिक रूप से तीन तलाक दिए जाने का मसला हो; दोनों किसी भी स्थिति में अदालती कानूनों पर बाध्यकारी नहीं हो सकते.
आधुनिक कानून सर्वस्वीकृत कानूनों की स्थापना करते हैं. अलबत्ता, ईसाई पर्सनल लॉ हो या मुस्लिम पर्सनल लॉ, दोनों किसी भी सूरत में आधुनिक संविधान और कानूनों का स्थान नहीं ले सकते.
सो दोनों मान्य नहीं हो सकते. प्रधान न्यायाधीश जे.ऐस. खेहर और डी. वाई. चंद्रचूड़ की खंडपीठ ने कर्नाटक कैथोलिक एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष क्लोरेन्स पेस की याचिका पर शीर्ष अदालत के 1996 के फैसले का हवाला देते हुए अपना फैसला सुनाया है. दरअसल, इंसान सदियों से चली आ रही रूढ़ परम्पराओं और मूल्यों में समाज विरोधी, मनुष्य विरोधी तत्वों की खोज करता रहता है.
इसी का नतीजा है कि भारतीय समाज ने सती प्रथा, बाल विवाह और अस्पृश्यता जैसे मनुष्य विरोधी तत्वों की पड़ताल की और इनके खिलाफ कानून बनाए गए. समाज विरोधी यह प्रवृत्तियां और इनके दकियानूसी प्रतिनिधि हमेशा आधुनिक समतावादी मूल्यों के पहिये पीछे धकेलने की कोशिश करते हैं, ताकि यथास्थितिवाद बना रहे.
ऐसी नकारात्मक प्रवृत्तियों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए, जिससे मानव का गौरव बहाल हो सके. भारतीय समाज बहुलवादी है. यहां विभिन्न जाति, संप्रदाय, धर्म और भाषा के लोग हैं, जो संविधान और अदालती काूनन के समक्ष बराबर हैं. इसमें से किसी भी जाति, धर्म या संप्रदाय के प्रति आस्था रखने वालों की संविधान प्रदत्त अधिकारों का यदि हनन होता है तो सर्वोच्च न्यायालय अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों के तहत उसकी रक्षा करता है. और उनके अधिकारों को पुनर्बहाल करता है.
सही मायने में संविधान और कानून सर्वोपरि हैं. उसके आगे सभी निजी धार्मिक कानून गौण हैं. प्रगतिशील सामाजिक मूल्यों का विकास सर्वस्वीकृत मूल्यों और कानूनों के जरिये ही संभव है. इसलिए समाज के उधर्वगामी मूल्यों की स्थापना होनी चाहिए. शीर्ष अदालत के फैसले को इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए.
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