राज-सम्मान की खातिर
मुलायम सिंह यादव जैसे कद्दावर नेता भी परिवार में उठे राजनीतिक तूफान को पढ़ने-समझने में नाकाम रहे, जिसने समाजवादी पार्टी की राजनीतिक-इतिहास की धारा ही बदल दी है.
राज-सम्मान की खातिर |
मुलायम सिंह यानी नेताजी सैफई के झगड़े को लखनऊ तक आने और राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित-प्रसारित होने से पहले अगर सुलझा लेते तो यह स्थिति नहीं आती.
पर वह समय रहते इस पारिवारिक विवाद से उत्पन्न होने वाले राजनीतिक परिणामों को भांपने में चूक गए. अब वह परिवार और पार्टी की एकता को लेकर चाहे जितनी भी सफाई दें, उसका कोई अर्थ नहीं रह गया है.
यह विवाद और अन्तर्कलह जिस जगह पहुंच गए हैं, वहां से स्थिति का सामान्य होना संभव नहीं लगता. यह तथ्य है कि नेताजी के आशीर्वाद से ही अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने थे. लेकिन यह भी वास्तविकता है कि सार्वभौम सत्ता की कुंजी कभी उनके पास नहीं रही. किसी भी बड़े राजनीतिक फैसले लेने के पहले नेताजी की स्वीकृति आवश्यक थी.
शिवपाल सिंह और आजम खां जैसे वरिष्ठ नेताओं में अखिलेश सिंह के प्रति ‘बच्चा भाव’ बना रहा. इन्होंने मुख्यमंत्री अखिलेश को कभी वह सम्मान नहीं दिया, जो उनको मिलना चाहिए था. इससे मुख्यमंत्री अखिलेश की कार्यपण्राली बाधित हुई. इसके बावजूद वह अपने विकास कार्यों को आगे बढ़ाने और अपनी साफ-सुथरी छवि बनाने में कामयाब रहे.
राजनीतिक जोड़-तोड़, दांव-पेच और व्यवहारवादी राजनीति में शिवपाल सिंह और अमर सिंह का खेमा भले माहिर हो, लेकिन अपने विकास कार्यों और शालीन व्यवहार ने अखिलेश को सपा का सबसे लोकप्रिय नेता बना दिया.
अब आगे यह देखना बाकी है कि अखिलेश अपने विरोधियों से कैसे निपटते हैं! पांच नवम्बर को सपा के प्रस्तावित रजत जयंती समारोह में इसके बहुत कुछ संकेत मिल सकते हैं. लेकिन सपा को बचाने के लिए नेता जी के पास अब भी एक अवसर है. उन्हें अपनी लोकप्रियता को निरंतर बनाए और बचाए रखने के लिए सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर देनी चाहिए.
दीवारों पर लिखी स्पष्ट इबारत को पढ़कर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर किसी भी तरह का अनावश्यक दबाव बनाने से दूर रहते हुए उन्हें फैसले लेने के लिए आजाद कर देना चाहिए. पिता के साथ अखिलेश के चाचाओं को भी अनावश्यक दखल की नीति छोड़कर उनके बुजुर्ग सलाहकार के रूप में काम करना चाहिए. ऐसा करने से परिवार का सम्मान, पार्टी और अखिलेश की सत्ता में पुनर्वापसी की संभावना रहेगी.
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