हिंदुत्व पर विचार नहीं
सर्वोच्च न्यायालय के यह कहने के बाद कि उनके समक्ष हिंदुत्व का मसला विचाराधीन नहीं है और इस पर वह विचार नहीं कर रहा है, इस संबंध में पैदा हुई गलतफहमी दूर हो जानी चाहिए.
हिंदुत्व पर विचार नहीं |
वास्तव में यह गलतफहमी याचिकाकर्ता तीस्ता शीतलवाड़ और उनके समर्थकों द्वारा फैलाई गई थी कि उन्होंने 1995 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हिंदुत्व के मामले पर दिए गए फैसले के संदर्भ में पुनर्विचार याचिका डाली है, जिसे न्यायालय ने स्वीकृत कर लिया है.
यह बात ठीक है कि तीस्ता ने न्यायालय से मांग की कि चुनाव में दलों को ‘हिंदुत्व’ के नाम पर वोट मांगने से रोका जाए, और इसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया. इस पर सुनवाई चल रही है.
किंतु इसका अर्थ न्यायालय की नजर में यह नहीं है कि उसे 1995 के उस ऐतिहासिक फैसले पर पुनर्विचार करना है, जिसमें हिंदुत्व को एक मजहब या पंथ के बजाय जीवन दर्शन माना गया था. न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि उसके सामने जो मामला विचार के लिए है, वह जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) की व्याख्या का है.
दरअसल, 1995 में हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगने के आधार पर बंबई हाई कोर्ट ने भ्रष्ट तरीका मानते हुए करीब दस नेताओं के चुनाव रद्द कर दिये थे. हालांकि 1995 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला पलट दिया था. उसी फैसले में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने हिंदुत्व को धर्म के बजाय जीवनशैली कहा था.
इन्हीं मामलों से संबंधित कई याचिकाएं लंबित रह गई थीं. इन सबमें धर्म के आधार पर वोट मांगने का ही मसला शामिल है, जो कि तीन फिर पांच न्यायाधीशों की पीठ से होता हुआ सात न्यायाधीशों की पीठ तक पहुंचा है. हम मानते हैं कि धर्म, जाति, नस्ल, पंथ, संप्रदाय, क्षेत्र या भाषा किसी के नाम पर वोट मांगना चुनाव के भ्रष्ट तरीकों में शामिल है और ऐसा करने वालों का चुनाव रद्द होना चाहिए.
किंतु कोई व्यक्ति धार्मिंक है, अपने भाषण में धर्म का कोई उदाहरण देता है, जिसमें उसका उद्देश्य यह नहीं है कि लोग उसे फलां धर्म का मानकर वोट करें तो यह भ्रष्ट आचरण में नहीं आ सकता. न्यायालय इस पर अपना मत साफ प्रकट कर दे कि अगर हिंदुत्व जीवन शैली है तो उसका चुनाव में उपयोग होना चाहिए या नहीं और होना चाहिए तो किस सीमा तक.
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