निशाने पर आधी आबादी

Last Updated 01 Sep 2016 12:37:37 AM IST

राजधानी दिल्ली समेत देश के कमोबेश हर सूबे में महिलाओं के खिलाफ अपराध चरम पर हैं.


निशाने पर आधी आबादी

पिछले दिनों दिल्ली के भलस्वा डेयरी इलाके में छेड़खानी का विरोध करने पर एक लड़की को बदमाशों ने जला दिया. यह इंतहा है. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, न सिर्फ महिलाओं के खिलाफ बल्कि बच्चे और दलितों के खिलाफ भी वारदात बढ़े हैं. स्वाभाविक है, यह तबका कमजोर भी है और असुरक्षित भी. हालांकि, 2014 के मुकाबले 2105 में 3.1 फीसद की कमी देखी गई है. साथ ही रेप के मामले में भी 5.7 फीसद की गिरावट दर्ज की गई है.

मगर छेड़खानी, पीछा करना और घूरने जैसे मामलों में 2.5 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई है. साथ ही अपहरण और बहला-फुसलाकर भगा ले जाने के मामले भी बढ़े हैं. दिल्ली इन सब में अव्वल है. आंकड़ों में कमी भले खुशफहमी पालने का मौका दे.

मगर यह चिंताजनक तस्वीर तो पेश करती ही है. यह विचार योग्य है कि क्या वाकई आधी आबादी पर अत्याचार सामाजिक है या फिर कानून-व्यवस्था का मसला? नि:संदेह समाज की वर्जनाएं रसातल में जा रही है और दायित्व और जिम्मेदारियों का अहसास गुजरे जमाने की बात होकर रह गई है.

व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता जा रहा है. एकल परिवार का चलन, समाज में विलगाव, परिवार में आदर्श और संस्कार की बातों को अगली पीढ़ी तक नहीं पहुंचाने का गैरजिम्मेदाराना रवैया, ये सब बातें ही आज के दौर में क्राइम के लिए उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं. सरकार के लिए इसलिए दोहरी चुनौती दरपेश है.

क्योंकि उसे सामाजिक और कानून सम्मत तरीके से अपराध को कम-से-कम पर लाना है. आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ देश में राजनीतिक उदारीकरण और पितृ सत्तात्मक भारतीय समाज का उदारीकरण भी होना जरूरी था जो नहीं हो पाया. अब वक्त आ गया है, भारतीय समाज व देश की राजनीति में सकारात्मक सोच के साथ सुधार की तरफ कदम बढ़ाया जाए. उच्चतम न्यायालय ने भी माना है कि समाज में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में तेजी से वृद्धि हुई है और प्रशासन और कानून लागू करने वालों को महिला की समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनाकर ही इस पर काबू पाया जा सकता है.



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