‘संस्कृति’ के उलट
हम अजीब दौर में रह रहे हैं. कुछ घटनाओं की वजह से ऐसा सोचा जा सकता है.
‘संस्कृति’ के उलट |
एक तरफ जहां फ्रांस के नीस शहर में सरकार महिलाओं को बुर्का पहनने से रोक रही है, वहीं भारत में विदेशी पर्यटकों को देश के संस्कृति मंत्री तंग कपड़े और छोटे परिधान न पहनने की ‘नेक’ सलाह दे रहे हैं. इसे क्या कहा जाए?
ऐसा नहीं है कि संस्कृति मंत्री की जुबान पहली दफा ‘कर्कश’ हुई है. इससे पहले दादरी हिंसा में अखलाक की पीट-पीटकर हत्या के मसले को उन्होंने एक्सीडेंट कहा था. वहीं पूर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम के बारे में उनका कहना था कि, वह मुस्लिम होने के बावजूद राष्ट्रवादी थे. पर, इस बार का मसला इससे कहीं ज्यादा गंभीर है. किसी को क्या पहनना है? यह फरमान कोई कैसे सुना सकता है?
यह सिरे से खारिज करने वाला कथन है. डरावना व निराशाजनक भी. वो भी देश का संस्कृति मंत्री जब यह बोले! यह पूर्वाग्रह से बुरी तरह ग्रसित होने का आभास देता है. मध्यकालीन युग में जिस तरह से महिलाओं के साथ व्यवहार किया जाता था. और उन्हें धर्म, परंपरा और समाज के अपयश का डर दिखाकर कुछ नया करने से रोका जाता था क्या. वैसा ही कुछ संस्कृति मंत्री चाहते हैं?
जिस मंत्री या जिम्मेदार शख्स के बयान से दायित्व और मन को मजबूती देने का अहसास होना चाहिए, उसके बयान से आधी आबादी को पीड़ा हो रही है. यह देश के लिए भी शर्म की बात है. जहां न जिम्मेदारी है, न सरोकार है और न उदारवादी सोच. यह पुरुषवादी मानसिकता को ठसके से जाहिर करता है.
ऐसे बयान से सिर्फ गलत काम करने वालों को ही बढ़ावा मिलेगा. मंत्री तो बयानबाजी के बहाव में समाजशास्त्री बन जाते हैं. भाजपा चूंकि ‘ड्रेस कोड’ और ‘नैतिकता’ की बात करने से आगे सोच ही नहीं पा रही है. और उनके मंत्री भी इसी राह पर हैं. उनको मानना चाहिए कि स्वीकार्यता किसी सरकार के काम को लेकर होती है, न कि पहनावे को लेकर.
अभी का वक्त तो दकियानूसी विचारों पर हमला करने का है न कि उसे बढ़ावा देने का. सरकार को तो बलात्कार और महिलाओं से जुड़े अपराध पर और सख्त कदम उठाने की जरूरत के बारे में विचार करना चाहिए न कि इस तरह के अनर्गल बयान देने की. सैलानियों को सुरक्षा मुहैया कराना सरकार का कर्तव्य है. हम यह भी देख चुके हैं कि निर्भया कांड के बाद तीन साल तक-2013-15 तक विदेशी पर्यटकों में 3 फीसद की कमी दर्ज की गई थी. सो, तोल-मोल कर बोलने में ही समझदारी है.
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