जन्नत ही रहे तो बेहतर
राजनाथ सिंह का गृहमंत्री के रूप में डेढ़ महीने में दूसरी बार कश्मीर दौरे के पीछे हालात सुधारने का तरीका ढूंढ़ना था.
गृह मंत्री राजनाथ सिंह और मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती. |
इसके लिए वहां के लोगों से सीधे मुखातिब होना जरूरी था. 300 से अधिक लोगों से बातचीत में यह आम राय उभर कर आई कि मुट्ठी भर गुमराह लोगों को छोड़, वहां का बड़ा अवाम अमन चाहता है. एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का कश्मीर आगमन, इस दिशा में सही कदम होगा. शायद लोग देश के दूसरे दलों को भी अपनी बात मालूम कराना चाहते हैं. यह आकांक्षा देशहित में ही है. चूंकि कश्मीर का मसला देश का है, लिहाजा उसके बारे में किसी भी अवधारणा पर राष्ट्रीय सहमति बननी ही चाहिए.
अच्छी बात है कि राजनाथ ने भी केंद्र की तरफ से दोहराया है कि सरकार \'कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत\' के दायरे में बातचीत के लिए प्रतिबद्ध है. पर कश्मीर की जन्नत को बरकरार रखने के लिए वहां के अवाम को कुछ कड़े सवालों के जवाब में सोचने के लिए तैयार रहना चाहिए.
सरकार की दोहराई जा रही यह समझदारी उचित कही जा सकती है कि एक आतंकवादी के मुठभेड़ में मारे जाने पर बच्चों को उकसा कर 48-49 दिनों से घाटी को ठप रखना कहां तक जायज है? मीडिया में आई खबरों और सरकार की राय में यह साम्यता उचित है कि अलगाववादियों का गुट बच्चों को उकसा कर एक तर्कहीन मसले के लिए माहौल को \'जहन्नुम\' बना रहा है.
महबूबा बताती हैं कि 95 फीसद से भी ज्यादा लोग अमन से रहना चाहते हैं. कर्फ्यूग्रस्त जिंदगी से आए ठहराव से लोग बिलबिला उठे हैं. मौजूदा यह गतिरोध आतंकवाद और आतंकियों का पक्ष लेता दिख रहा है. इस लिहाजन, इसकी तुलना 2010 में माछिल में फर्जी मुठभेड़ में तीन निर्दोष लोगों की मौत के बाद बिगड़े माहौल से नहीं की जा सकती, जिसमें 100 जानें गई थीं.
महबूबा का इस सवाल पर बिफरना लाजिमी था. ताजा हिंसा के उत्प्रेरकों के बारे में उनका बयान काफी साहसी है कि \'सैन्य शिविर या पुलिस थाने पर 15 साल का कोई बच्चा टॉफी या दूध लेने तो नहीं जाएगा\'. मुख्यमंत्री की यह खरी-खरी हालात के बारे में ईमानदार आकलन के लिए लोगों को प्रेरित करेगा. अच्छी बात यह है कि जमीन पर ऐसा होता भी दिख रहा है.
आम आदमी का अमन के पक्ष में आने से इस उम्मीद की बुनियाद और मजबूत होती है कि शिकायतों के त्वरित निपटान होता रहे तो \'जन्नत\' को \'जहन्नुम\' बनने से रोका जा सकेगा.
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