राष्ट्रवाद की छतरी में
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि भाजपा की पहचान राष्ट्रवाद है. पार्टी के राज्यों के कोर ग्रूपों के सम्मेलन में ऐसा कहने का निश्चय ही कुछ विशेष उद्देश्य है.
प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह (फाइल फोटो) |
मोदी पार्टी नेताओं को आगाह कर रहे थे कि जिस विचारधारा पर पार्टी खड़ी हुई और यहां तक बढ़ी आई है, उससे ही उसे आबद्ध रहना है. ऐसे समय जब भाजपा को दलित विरोधी साबित किया जा रहा है; उसके नेता के रूप में मोदी का यह कहना ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है.
उनका दावा है कि सबसे ज्यादा दलित, आदिवासी और पिछड़े उनकी पार्टी में हैं और वे उनकी ताकत हैं. यानी राष्ट्रवाद की विचारधारा में ऐसी शक्ति है, जो सभी जातियों, पंथों, संप्रदायों और क्षेत्रों को एक सूत्र में जोड़ देता है.
भाजपा अगर यहां तक पहुंची है तो उसका कारण यही है. भाजपा की यह बैठक ऐसे समय हुई जब सरकार द्वारा घोषित \'स्वतंत्रता पखवाड़ा\' का समापन हुआ है. स्पष्ट है कि इसका भी लक्ष्य राष्ट्रवाद का ही भाव पैदा करना था.
सवाल है कि मोदी को यह कहने की जरूरत कैसे पड़ी कि भाजपा की धुरी राष्ट्रवाद है? यह भी कि जब इसमें दल की आत्मा बसती है तो फिर दलितों की जब-तब धुनाई और पिटाई करते वक्त वह जार-जार क्यों नहीं रोती है? बड़े जतन से दलितों को राष्ट्रवाद की छतरी के नीचे लाये जाने के प्रयास में अगर बिखराव आता है तो यह मानने के पर्याप्त कारण हो जाते हैं कि मिलाप दिलों का दिलों से नहीं हुआ है.
दिमाग का यह फौरी आइडिया सत्ता समीकरण को साधने के लिए आया है. सरकार के समीकरणी मतों को भाजपा में व्यापक स्वीकृति नहीं मिली हुई है. इसलिए ही मोदी को यह बात ठीक से बताने के लिए कोरग्रुपों को ताकीद करनी पड़ी. राष्ट्रवाद को थामे रहो और जात के आधार पर भेदभाव न करो तो पहले चुनावों में जीत का सिलसिला शायद ही कहीं रुकेगा.
उनकी इस सीख के कामयाब होने की परीक्षा तो तभी होगी, जब दलितों-वंचितों के सताने में भाजपा या उसके अनुषंगी संगठनों के नाम आगे किसी घटना में न आए. पर ऐसा शायद ही हो. त्रिपुरा के उदाहरण कुछ और ही संकेत करते हैं. टिकाऊ हल तो यही होगा जब \'मानव मानव से नहीं भिन्न\' के विास को संबंधों का आधार बनाया जाए.
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