शहजादे बनाम शहंशाह

Last Updated 01 Jun 2016 05:46:36 AM IST

आलोचना तीखी और आरोप पुख्ता हों तो माना जाता है कि उससे लोकतंत्र समृद्ध होता है, उससे राह साफ-सुथरी होती है और गड़बड़ियों की आशंकाएं छंटती हैं.


शहजादे बनाम शहंशाह

लेकिन व्यक्तिगत छींटाकशी में जबान तेज चलने लगे और बिना पुख्ता आधार के सिर्फ लांछन लगाने के लिए आरोप उछलने लगें तो इससे राजनीति का स्तर गिरता है. लोकतंत्र के लिए यह शुभ नहीं होता क्योंकि इससे एक तो गंभीरता खत्म होती है और असली मसलों से ध्यान भटकता है.

मोदी सरकार के दो साल के आयोजन पर कांग्रेस अध्यक्ष की आलोचना बेशक व्यक्ति केंद्रित नहीं होती तो बेहतर होती. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘‘शहंशाह’’ कहा तो भाजपा को रास नहीं आया. लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसकी एक मायने में शुरुआत लोक सभा चुनाव के दौरान भाजपा और खासकर मोदी के जरिए ही हुई थी. उनकी ‘‘शहजादे’’ टिप्पणी आज भी लोगों को याद है.

बाद में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी ‘‘सूट-बूट’’ की सरकार कहकर उनकी आलोचना की थी. ऐसी व्यक्तिगत टिप्पणियों से माहौल इस कदर हल्का हो जाता है कि खासकर टीवी पर चुटीली बाइट देने के चक्कर में अदना-से पार्टी प्रवक्ता भी बड़े से बड़े नेताओं के लिए कुछ भी कहने से परहेज नहीं करते.

मुश्किल यह है कि इससे देश के असली मसले पर बहस गायब हो जाती है, ऐसे ही जुमले छाए रहते हैं. एक जमाना वह भी था कि देश में प्रति व्यक्ति आमदनी के पंडित जवाहरलाल नेहरू सरकार के दावे को खारिज करने के लिए संसद में समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने दस आना बनाम तीन आना की प्रसिद्ध बहस छेड़ी थी. उन्होंने अपने ठोस र्तको से सरकार को लाजवाब कर दिया था.

काश! आज मोदी सरकार के दो वर्ष पर उसके कामकाज को देश की स्थिति के मद्देनजर आंकड़ों और तथ्यों से जवाब दिया जाता तो यह मौका भी एक स्वस्थ बहस में बदल जाता. लेकिन ऐसा लगता है कि न विपक्ष में इस विस्तृत बहस में जाने का धीरज है, न सरकार ऐसे बहस में उलझना मुनासिब समझती है. सो, दोनों ओर से व्यक्तिगत किस्म के आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं.

बदतर तो यह है कि घोटालों-घपलों के आरोप भी ऐसे उछल रहे हैं जिनमें सरकार पुख्ता जांच-पड़ताल में नहीं जाना चाहती. बस आरोप उछालने तक ही सीमित रहना पर्याप्त समझा जाता है. अगर सोनिया अगस्ता वेस्टलैंड या राबर्ट वाड्रा पर उछले नए आरोप की जांच की मांग करती हैं तो सरकार को फौरन आरोपों को साबित करने से क्यों परहेज होना चाहिए?



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