मुद्दा : धर्म आधारित आरक्षण की राजनीति

Last Updated 28 Apr 2024 01:22:10 PM IST

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने धर्म के आधार पर पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण में सेंधमारी करने के संविधान विरोधी प्रयासों पर बड़ा हमला बोला है।


कांग्रेस से सवाल किया है, ‘क्या कांग्रेस ऐलान करेगी कि वे संविधान में पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के आरक्षण को कम करके इसे मुसलमानों को नहीं बांटेंगे?’ 2004 में जैसे ही कांग्रेस की केंद्र में सरकार बनी तो  उसने सबसे पहले आंध्र प्रदेश में एससी/एसटी आरक्षण को कम कर इस कोटे में मुसलमानों को आरक्षण देने का प्रयास किया था। यह कांग्रेस का ‘पायलट प्रोजेक्ट’ था, जिसे कांग्रेस पूरे देश में आजमाना चाहती थी। 2004-2010 के बीच कांग्रेस ने चार बार आंध्र प्रदेश में मुस्लिम आरक्षण लागू करने की कोशिश की थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की जागरूकता के कारण वे अपने मंसूबे पूरे नहीं कर पाए। मोदी ने अब फिर से आरोप लगाया कि कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणापत्र में लोगों का धन छीन कर अपने ‘खास’ लोगों को बांटने की साजिश रची है। यह अत्यंत तल्ख टिप्पणी राजस्थान के टोंक जिले में एक चुनावी जनसभा में की।
प्रधानमंत्री की टिप्पणी संपूर्ण सत्य है। एक समय कांग्रेस सरकार की अल्पसंख्यक बनाम मुस्लिमों को पिछड़ों, दलित और आदिवासियों के संविधान में निर्धारित कोटा के अंतर्गत 4.5 प्रतिशत आरक्षण देने की मंशा रही थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने भी कड़ा रु ख अपनाते हुए आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले के विरु द्ध दायर अपील को खारिज कर दिया था। केंद्र सरकार इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से स्थगन आदेश चाहती थी। इस मंशा के विपरीत कोर्ट ने सरकार से स्पष्ट करने को कहा था कि वह बताए कि उसने किस आधार पर अल्पसंख्यकों को 4.5 फीसदी आरक्षण देने का फैसला लिया? कोर्ट ने यह भी कहा कि इस तरह तो कोटे में उपकोटा आरक्षित करने का सिलसिला चलता रहेगा। दरअसल, आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने धर्म के आधार पर’ आरक्षण का लाभ संविधान के विरु द्ध बताया था।
वर्तमान में दिसम्बर, 2011 के बाद से शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में ओबीसी वर्ग को 27 फीसद आरक्षण का प्रावधान है। लेकिन केंद्र सरकार ने ओबीसी के कोटे में खास तौर से मुस्लिमों को लुभाने के लिए 4.5 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का प्रावधान कर दिया था। इसे कानूनी रूप देते हुए ‘अल्पसंख्यकों से संबंधित’ और ‘अल्पसंख्यकों के लिए’ जैसे वाक्यों का जो प्रयोग किया गया वह असंगत है, जिसकी कोई जरूरत नहीं है। इस फैसले का व्यापक असर होना तय था क्योंकि यह प्रावधान आईआईटी जैसे केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में भी लागू हो गया था।
वंचित समुदाय, चाहे अल्पसंख्यक हों अथवा गरीब सवर्ण, को बेहतरी के उचित अवसर देना लाजिमी है क्योंकि बदहाली की सूरत अल्पसंख्यक अथवा जातिवादी चश्मे से नहीं सुधारी जा सकती? खाद्य की उपलब्धता से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी जितने भी ठोस मानवीय सरोकार हैं, उनको हासिल करना मौजूदा दौर में पूंजी और शिक्षा से ही संभव है। ऐसे में आरक्षण के सरोकारों के जो वास्तविक हकदार हैं, वे अपरिहार्य योग्यता के दायरे में न आ पाने के कारण उपेक्षित ही रहेंगे। अलबत्ता, आरक्षण का सारा लाभ वे बटोर ले जाएंगे जो आर्थिक रूप से पहले से ही सक्षम हैं, और जिनके बच्चे पब्लिक स्कूलों से पढ़े हैं। इसलिए इस संदर्भ में मुसलमानों और भाषायी अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की वकालत करने वाली रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट के भी कोई बुनियादी मायने नहीं रह गए थे? यह रिपोर्ट भी मुसलमानों को संवैधानिक प्रावधानों में आरक्षण जैसे विकल्प खोलने के लिए तैयार कराई गई थी।
वर्तमान समय में मुसलमान, सिख, पारसी, ईसाई और बौद्ध ही अल्पसंख्यक दायरे में आते हैं जबकि जैन, बहाई और कुछ दूसरे धर्म-समुदाय भी अल्पसंख्यक दर्जा हासिल करना चाहते हैं लेकिन जैन समुदाय केंद्र द्वारा अधिसूचित सूची में नहीं है। इन्हीं वजहों से आतंकवाद के चलते अपनी ही पुश्तैनी जमीन से बेदखल  कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक के दायरे में नहीं आ पा रहे हैं। दरअसल, ‘अल्पसंख्यक श्रेणी’ का अधिकार पा लेने के क्या राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक निहितार्थ हैं, इन्हें समझना मुश्किल है।

प्रमोद भार्गव


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