मीडिया : मीडिया और प्रेस काउंसिल

Last Updated 30 Aug 2020 12:17:35 AM IST

लीजिए,‘प्रेस काउंसिल’ को भी अंतत: कहना पड़ा है कि सुशांत की आकस्मिक मृत्यु पर मीडिया अपना ट्रायल न चलाए क्योंकि ऐसे ट्रायल न्याय की प्रक्रिया में बाध पैदा करते हैं।


मीडिया : मीडिया और प्रेस काउंसिल

प्रेस काउंसिल का मानना है कि कई मीडियाओं ने इस केस के नायक-खलनायक पहले ही तय कर दिए हैं। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा हर रोज नये-नये मुकदमे चलाकर पब्लिक को उकसाता है। मीडिया पर सहज ‘यकीन’ करने वाली जनता मीडिया के ‘पूर्वाग्रह’ से ग्रस्त हो जाती है और न्याय की स्वतंत्र प्रक्रिया को संदिग्ध मानने लगती है। यह किसी मानी में ठीक नहीं। इसीलिए काउंसिल का मशविरा है कि मीडिया अपने ‘ट्रायल सर्कस’ से बाज आए। और, जब ईडी, सीबीआई व नारकोटिक्स ब्यूरो जैसी संस्थाएं जांच में जुटी हैं, तब मीडिया को ‘समांतर ट्रायल’ चलाने की क्या जरूरत? 

मीडिया ने हर ‘फैसले’ से पहले अपना फैसला सुनाने की आदत सी बना ली है। कई बार तो वह अदालत के फैसले की ‘पूर्व-कल्पना’ कर उसे  पब्लिक पर थोप कर दावा करने लगता है कि यही फैसला आएगा। और जब, वैसा फैसला नहीं आता तो फैसला देने वाली संस्था को एक प्रतिरोधी वातावरण झेलना पड़ता है। ऐसा कई बार होता दिखा है। लेकिन ‘प्रेस काउंसिल’ भी क्या करे? वह सिर्फ प्रिंट मीडिया को देखती है जबकि खबर चैनलों के लिए निजी चैनलों की बनाई एक ‘न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन’ है, जो अब तक कुछ भी नहीं बोली है। यह एसोसिएशन खबर चैनलों से ‘आत्मनियमन’ की उम्मीद करती है, लेकिन रोज एकतरफा ‘मुकदमे’ चलाना कौन-सा ‘आत्मिनियमन’ है? और ‘सोशल मीडिया’! वो तो किसी भी ‘आत्मनियमन’ से परे ही है। फिर भी, प्रेस काउंसिल की सलाह सभी तरह के मीडियाओं के लिए उपयोगी है। खबर चैनलों को तो इसका मर्म तुरंत समझना चाहिए और अपने रोज के मीडिया ट्रायलों से बचना चाहिए क्योंकि ऐसे ट्रायल  समूची ‘जांच व न्याय प्रक्रिया’ को, पूरा होने के पहले ही ‘पूर्वाग्रहग्रस्त’ बना देते हैं। अगर उनका बताया ‘फैसला’ आता है तो चैनल/एंकर अपनी बगलें बजाते हैं और अगर नहीं आता है तो फैसला करने वाले संस्थानों को ‘विरोधी वातावरण’ का सामना करना पड़ता है। यह सब जांच एजेंसियों व अदालत की स्वतंत्र निर्णय प्रक्रिया को ही ‘संदिग्ध’ बनाने लगता है और स्वतंत्र न्याय प्रक्रिया के काम में अवांछित बाधा पैदा करता है। खबर चैनलों में ऐसी मुकदमेबाजी पिछले कुछ बरसों से फैशन सी बन चली है। खबर चैनलों का बड़ा हिस्सा आए दिन किसी न किसी मुद्दे पर ‘ट्रायल’ चलाता नजर आता है। और इन दिनों तो कई खबर चैनल अपने ‘ट्रायल’ के बहाने किसी न किसी दल की राजनीति को भी आगे बढ़ाते दिखते हैं। शायद इसी कारण, खबर चैनलों में ‘प्रोफेशनल स्पर्धा’  की जगह ‘पॉलिटीकल दुश्मनी’ ठनती नजर आती है। इसी का नतीजा है कि कुछ चैनल सुशांत के केस को ‘हत्या’ बताते हैं और रिया की ‘अरेस्ट’ की मांग करते हुए, महाराष्ट्र पुलिस, सरकार व नेताओं को ‘अपराधी’ बताते हैं, जबकि दूसरे कई चैनल सुशांत की मौत को ‘मनोरोगी’ मानकर उसकी मौत को ‘आत्महत्या’ सिद्ध करते रहते  हैं। और, चैनल एक दूसरे के दुश्मन से नजर आते हैं। इतना ही नहीं, एंकर  एक दूसरे को खुलकर नीचा दिखाते दिखते हैं। इन दिनों उनके क्षुद्र ‘ईगो’ तक एक दूसरे से टकराते दिखते हैं और वे, किसी का नाम लिए बिना, एक दूसरे को ‘बिका हुआ’ बताते हैं। उनमें से कई अपने को कभी देश, राष्ट्र और 130 करोड़ की पब्लिक बताने लगते हैं और अभियान चलाते हैं कि ‘उसे अरेस्ट करो’, ‘बालीवुड को साफ करो’ आदि।
बहसों के बीच अगर कोई तटस्थ बंदा कह देता है कि भई जांच व अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए तो उसे भी किसी का ‘दल्ला’ बता कर उसको ‘साइलेंट’ कर दिया जाता है। ऐसे माहौल में, हिंदी खबर चैनलों का तो कहना ही क्या! वे तो पहले  से ही नंबरी ‘मुकदमेबाज’ हैं और चूंकि उनमें से अधिकांश किसी न किसी अंग्रेजी चैनल के सौतेले भाई हैं इसलिए वे और भी जोर-शोर से अंग्रेजी वालों का ‘युद्ध3 हिंदी में लड़ते रहते हैं। अब तो ये सारे मुकदमेबाज भी सुशांत केस में ‘दोफाड़’  हो गए हैं  और कभी-कभी कई एंकर एक दूसरे का सिर तक फोड़ने पर आमादा दिखते हैं। ध्यान रहे ऐसा ‘अभियानवादी’ मीडिया देर सबेर ‘लिंच मानसिकता’ फैलाने लगता है और समाज के ‘नागरिक स्पेस’ और ‘नागरिक बातचीत’ को खत्म करने लगता है। इसीलिए  हमारा मानना है कि खबर चैनल ‘मुकदमेबाज मोड’ को छोड़, ‘खबरनबीसी के मोड’ में आए तो बेहतर वरना जिस ‘पब्लिक’ को वे बना रहे हैं वही पब्लिक उनको एक दिन ‘रिजेक्ट’ कर देगी। 

सुधीश पचौरी


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